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Sindur Tradition : सिंदूर लगाने की परंपरा किस देवी से जुड़ी है? जानें इसके पीछे की कथा

सिंदूर हर हिंदू विवाहित महिला की पहचान है। सिंदूर को अखंड सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है और ये विवाहित महिला की शक्ति और समर्पण का भी प्रतीक है। यही वजह है कि हर हिंदू महिला विवाह के बाद मांग में सिंदूर भरती है। कई हिंदू धर्म शास्त्रों में सिंदूर लगाने के महत्व के बारे में बताया भी गया है। ऐसे में आज हम आपको बताने वाले हैं कि सिंदूर लगाने की परंपरा कब से शुरू हुई थी और सबसे पहले सिंदूर किसने लगाया था।

सिंदूर को लेकर क्या लिखा है धर्म शास्त्रों में?

वैदिक काल में भी स्त्रियां अपनी मांग में सिंदूर लगाती थीं, इस बात के साक्ष्य हमको ऋग्वेद और अथर्ववेद में मिलते हैं। वेदों में बताया गया है कि विवाहित स्त्रियां अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए सिंदूर लगाती थीं। वैदिक काल के दौरान सिंदूर को कुंकुम कहा जाता था। सिंदूर को वैदिक काल में पंच-सौभाग्य में शामिल किया गया था। पंच सौभाग्य बालों पर पुष्प, मंगल सूत्र, पैर की उंगली में छल्ले, चेहरे पर हल्दी और सिंदूर को कहा गया है।

सिंदूर सबसे पहले किसने लगाया? 

शिव पुराण में वर्णन मिलता है कि माता पार्वती ने वर्षों तक शिव जी को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की थी। जब भगवान शिव ने मां पार्वती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया तो मां पार्वती ने सुहाग के प्रतीक के रूप में सिंदूर मांग में लगाया था। साथ ही उन्होंने कहा था कि जो स्त्री सिंदूर लगाएगी उसकी पति को सौभाग्य और लंबी आयु की प्राप्ति होगी। धार्मिक मतों के अनुसार सबसे पहले माता पार्वती ने ही सिंदूर लगाया था और तभी से ये परंपरा चल पड़ी।

त्रैता और द्वापर युग में भी महिलाएं लगाती थीं सिंदूर 

रामायण कालीन एक कथा है कि एक बार हनुमान जी ने माता सीता को सिंदूर लगाते देख लिया। इसके बाद जिज्ञासावश हनुमान जी ने माता सीता से पूछा कि आप सिंदूर क्यों लगाती हैं। सीता जी बोलीं की राम जी की दीर्घायु और सुख के लिए। यह सुनकर रामभक्त हनुमान जी ने अपने पूरे शरीर पर सिंदूर लगा लिया था, ताकि उनके प्रभु को लंबी आयु और सुख प्राप्त हो। इसलिए आज भी हनुमान जी को सिंदूर चढ़ाया जाता है। यानि त्रेता युग में भी सिंदूर का प्रचलन था। इसके साथ ही द्वापर युग में द्रौपदी के सिंदूर लगाने का वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है। दुनिया की प्राचीन सभ्यताओं में से एक सिंधु घाटी की सभ्यता से भी कुछ ऐसे सबूत मिलते हैं जो बताते हैं कि सिंदूर लगाने की परंपरा तब भी थी। सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ी कुछ ऐसी मूर्तियां मिली हैं जिनमें महिलाओं की मांग में सिंदूर लगाने के साक्ष्य हैं। इस काल से जुड़ी देवियों की कुछ ऐसी मूर्तियां मिली हैं जिनके सिर के बीच में एक सीधी रेखा है और उस पर लाल रंग भरा गया है। पुरातत्वविदों का मानना है कि यह और कुछ नहीं बल्कि सिंदूर है।

पूजा में सिंदूर का महत्व

  • कई देवी-देवताओं की पूजा में सिंदूर अर्पित किया जाता है. खासकर हनुमान जी को सिंदूर बहुत प्रिय है और उन्हें चमेली के तेल के साथ सिंदूर चढ़ाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि इससे वे प्रसन्न होते हैं और भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं.
  • मां दुर्गा और माँ लक्ष्मी को भी सिंदूर चढ़ाया जाता है. सिंदूर को शक्ति और सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है, इसलिए देवियों को अर्पित करना शुभ माना जाता है.
  • गणेश जी को भी सिंदूर चढ़ाने की परंपरा है. हर शुभ काम को करने से पहले गणेश जी को सिंंदूर चढ़ाया जाता है.

आज भी क्यों इतना महत्वपूर्ण है सिंदूर?

आधुनिकता के इस युग में भी सिंदूर का महत्व कम नहीं हुआ है. यह केवल एक सांस्कृतिक पहचान नहीं, बल्कि नारी शक्ति, समर्पण और आस्था का प्रतीक है. स्त्रियां इसे अपने आत्मसम्मान और विश्वास के रूप में पहनती हैं. इसलिए सिंदूर लगाने की परंपरा महज एक सौंदर्य प्रसाधन नहीं, बल्कि देवी सती और देवी पार्वती से जुड़ी एक दिव्य कथा का प्रतीक है. यह परंपरा भारतीय संस्कृति में नारी शक्ति, प्रेम, और सौभाग्य की निरंतरता का प्रतीक बनकर आज भी जीवित है।

 

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