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Himachal News: भुंडा महायज्ञ में मानव बलि! प्रोफेसर की रिसर्च में बड़ा खुलासा…..

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लाइव हिमाचल/शिमलाः हिमाचल प्रदेश में भुंडा महायज्ञ को लेकर कई तरह की मान्यताएं और किवदंतियां हैं. एक मान्यता यह भी है कि ये नरमेध यज्ञ है. जिसमें प्रतीकात्मक मानव बलि होती है. शिमला जिला के स्पैल वैली के दलगांव में रविवार को उछड़-पाछड़ के साथ भुंडा महायज्ञ का आयोजन संपन्न हुआ. शनिवार को बेड़ा रस्म जिसे नरमेध यज्ञ से जोड़ा जाता है, पूरी हुई. भुंडा महायज्ञ पर शोध करने वाले डॉ. भवानी सिंह ने इसके इतिहास, मान्यताओं और परंपराओं को लेकर बेहद खास जानकारी दी. जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. भवानी सिंह भुंडा महायज्ञ, देवतंत्र, देव संस्कृति और लोक संस्कृति से जुड़े कई विषयों पर शोध कर चुके हैं. रोहडू क्षेत्र के बछूंछ में 2005 में हुए भुंडा महायज्ञ को भी डॉ. भवानी सिंह कवर कर चुके हैं. इस पर शोध किया है और एक डॉक्यूमेंटरी भी बनाई है. जानकारी के अनुसार एचपीयू के इंस्ट्टियूट ऑफ हिमालय स्टडीज की ओर से किए गए इस शोध पर करीब 18 लाख खर्च आया. डॉ. भवानी सिंह ने बताया कि भुंडा महायज्ञ की परम्परा कहां से और कब आरम्भ हुई यह तथ्य बहुत ही रोचक है. भवानी सिंह के अनुसार यह महायज्ञ पौराणिक और वैदिक है. कहा जाता है कि भुंडा महायज्ञ की उत्पति भंडासुर से हुई है और इस महायज्ञ की परम्परा का आरम्भ काव नामक स्थान तहसील करसोग, जिला मंडी से हुई है. सबसे पहले भुंडा महायज्ञ यहीं मनाया गया था, जिसके अवशेष आज भी कामाक्षा माता मन्दिर, काव में उपलब्ध हैं. काव के बाद ममेल, जिला मंडी निरथ, दत्तनगर, जिला शिमला में भुंडा महायज्ञ को मनाया गया था. इसके बाद जिला कुल्लू के निरमंड में इस महायज्ञ को मनाया गया. शिमला जिले में यह परम्परा कैसे पहुंची, यह भी एक रोचक तथ्य है. बुजुर्गों के अनुसार जब निरमंड में महायज्ञ हुआ था तो उस समय वहां पर भूंडे में प्रयोग किए जाने वाला रस्सा टूट गया था. जिसका टूटा हुआ टुकड़ा मुराल पर्वत को पार करते हुए शिमला जिले के गांव नड़ला में बिजली की तरह गिरा. स्थानीय लोग इससे भयभीत हुए और उन्होंने अपने कुल देवता की आराधना की. नड़ला के देवता ने लोगों को सलाह दी कि यह रस्सा उनके गुरु परशुराम का रचाया गया है. इसकी आराधना करना अति आवश्यक है, तभी से शिमला जिले के कुछ गांवों में भुंडा महायज्ञ को मनाए जाने की परम्परा शुरू हुई. जो कि आज तक निभाई जा रही है. डॉ. भवानी सिंह ने बताया कि भुंडा महायज्ञ के पूजन का शुभारंभ हवन कुंड से होता है. जहां पर बेड़ा व्यक्ति को प्रतीकात्मक मानव बलि के रूप में चढ़ाया जाता है. मंत्रोच्चारण के साथ बेड़ा व्यक्ति को रस्से पर फिसलने के लिए तैयार किया जाता है. बेड़े से जो रस्सी तैयार की जाती है, उसे किसी स्वच्छ नाले में भिगोने के लिए रखा जाता है. बेडे़ को नीचे फिसलने के लिए ऊंची जगह को चुना जाता है. इस ऊंची चोटी पर एक खम्भ गाड़ दिया जाता है और 300 मीटर नीचे तिरछी ढलान में दूसरा खम्बा गाड़ दिया जाता है. पानी में रखी गई रस्सी को शुभ मुहूर्त के साथ खूदों (वीर राजपूत) ऊपर ऊंची चोटी पर लेकर आते हैं. जहां लकड़ी के खम्भे में उसका एक सिरा और गहरे नाले को पार करते हुए दूसरा सिरा निचले खम्भे में बांध दिया जाता है. ऊपर वाले सिरे पर एक अखरोट की लकड़ी से बनाई गई काठी (सीट) विशेष रूप से रस्सी पर बांधी जाती है. बेड़े को रस्सी पर बांधी गई काठी पर बिठाया जाता है, जिसके दोनों तरफ संतुलन को बनाए रखने के लिए रेत से भरी बोरियां बंधी होती हैं. बेड़े के दोनों हाथों में सफेद कपड़े के झंडे पकड़ाए जाते हैं और उसको रस्सी पर नीचे छोड़ दिया जाता है।

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